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भारतीय अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी

भारतीय अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी

किसी देश की अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी बहुत मायने रखती है। अंतराष्ट्रीय श्रम संगठन की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार एशियाई देशों की दृष्टि से भारत और पाकिस्तान में सबसे कम महिला श्रमिक हैं। नेपाल, वियतनाम, कंबोडिया जैसे देशों में इनकी संख्या बहुत अधिक है।नेशनल सैंपल सर्वे के सर्वेक्षण को देखने पर पता लगता है कि देश में 1999-2000 की तुलना में 2011-12 में महिला श्रमिकों का प्रतिशत और भी कम हो गया है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन में विश्व के लगभग 185 देश शामिल हैं, जिनमें से 114 देशों में महिलाओं की श्रम भागीदारी बढ़ी है। 41 देशों में यह कम हुई है। इसमें भारत सबसे ऊपर है।

श्रम में महिलाओं की भागीदारी का एक कारण भारतीयों की आय में वृद्धि को बताया जाता है। पुरूष की आय पर्याप्त होने पर महिला को खेतों और निर्माण केंद्रों पर कठोर श्रम में संलग्न होने की आवश्यकता नहीं रह गई है। इसलिए वे परिवार के रखरखाव पर ध्यान दे रही हैं। इससे अलग एक और कारण सामने आता है, जो यद्यपि निराशावादी है, किंतु वास्तविकता के अधिक नजदीक लगता है। ऐसा माना जा रहा है कि खेतों के छोटा होने, बढ़ते मशीनीकरण और कृषि में मजदूरों की मांग घटने के कारण महिलाओं के पास काम नहीं है। अगर यह सत्य है, तो भविष्य में स्थिति और भी बदतर होती जाएगी।

वस्तुतः महिलाओं की आर्थिक भागीदारी को बढ़ाने के लिए देश में कुछ ज़मीनी परिवर्तन करने होंगे।
शोधों से पता चलता है कि अगर महिलाओं को काम करने के अवसर मिलें, तो वे इन्हें सहर्ष स्वीकार करती हैं। यह भी पता चलता है कि मनरेगा के माध्यम से 45%ऐसी महिलाओं को वैतनिक श्रम उपलब्ध कराया जा सका है, जो उन्हें पहले कहीं नहीं मिला था। इससे परिवार के फैसलों में उनकी भूमिका अहम् हो गई।
समस्या यह है कि मनरेगा में पूरे वर्ष रोज़गार के अवसर नहीं मिल पाते। इसके लिए हमें महिलाओं को कृषि-कर्म से गैर कृषि-कर्म में रोज़गार के अवसर देने होंगे।
दूसरे, हमें कार्यस्थल के वातावरण को महिलाओं के इतना अनुकूल बनाना होगा कि ग्रामीण, शहरी और शिक्षित महिलाएं वैतनिक रोज़गार को अपना सकें।
मैरीलैण्ड विश्वविद्यालय की एक समाजशास्त्री ने अपने शोध में पाया कि जिन गांव में सड़क के निर्माण कार्य हुए हैं, वहाँ पर पुरूषों की तुलना में महिला श्रमिकों की संख्या अधिक रही। साथ ही अच्छी सड़क बनने से परिवहन की सुविधा बढ़ी। इसके चलते एक गाँव के श्रमिक (अधिकतर महिलाएं) काम की तलाश में अन्य गाँव और कस्बों में जाने में सक्षम हो सकीं।
भारतीय समाज में महिलाओं के काम करने को लेकर दृष्टिकोण अभी भी बहुत संकुचित है। घरेलू कामों और बच्चों की देखभाल की पूरी जिम्मेदारी महिलाओं को ही सौंपी जाती है।
भारतीय संस्थानों में बहुत कम ऐसे हैं, जो काम और परिवार के बीच संतुलन पर ध्यान देते हों। कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि कनाडा की तुलना में भारत में कोई व्यक्ति प्रति सप्ताह दस घंटे ज्यादा काम करता है।
कार्यावधि की ऐसी कठिन शर्तों में अगर महिलाओं को कामकाजी बनाना है, तो पुरूषों को घरेलू कामों और बच्चों की देखभाल को साझा करना होगा।
औपचारिक (Formal Sector) क्षेत्र के उच्च श्रेणी रोज़गार में महिलाओं की भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए कंपनियों के वातावरण को पारिवारिक जीवन के अनुकूल लचीला बनाना होगा।
कॉर्नेल विश्वविद्यालय की एक समाजशास्त्री ने अपने अध्ययन में एक अन्य पक्ष को ऊजागर किया है। उनके अनुसार जापान एवं कोरिया से अलग भारतीय दंपत्ति न तो अपनी इच्छाओं को वरीयता पर पूरा करने के लिए और न ही काम में आसानी के लिए परिवार को छोटा रखने को प्रेरित हुए हैं, बल्कि वे अपने बच्चों के उज्जवल भविष्य के लिए काफी खर्च करते हैं और करना चाहते हैं। इसलिए सीमित परिवार सुविधाजनक लगता है।
समाज के लिए दोनों ही तरह की स्थितियाँ ठीक नहीं हैं। इससे उलट कार्यस्थलों को परिवार भी आवश्यकताओं के प्रति संवेदनशील बनाने की जरुरत है, जिससे महिलाएं दोनों ओर बराबर समय और क्षमता दे सकें।2016-17 के आर्थिक सर्वेक्षण से पता चलता है कि पूर्वी एशियाई देशों से भारत को तगड़ी आर्थिक चुनौती मिल रही है। महिलाओं की आर्थिक भागीदारी को बढ़ाकर इससे मोर्चा लिया जा सकता है। ऐसा करने का यही सही मौका है।

‘द हिंदू‘ में प्रकाशित सोनालडे देसाई और अनुपम मेहता के लेख पर आधारित।

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